Friday, January 15, 2016

गजल : मिर्जा ग़ालिब


गजल -
जिस जख्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की

जिस जख्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
लिख दीजियो, या रब उसे ! क़िस्मत में अदू की
अच्छा है सर-अंगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर
दिल में नजर आती तो है, एक बूंद लहू की
क्यों डरते हो उश्शाक की बे-हौसलगी से
यां तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू की
दशाने ने कभी मुंह न लगाया हो जिगर को
ख़ंजर ने कभी बात न पूछी हो गुलू की
सद हैफ़ ! वह ना-काम, कि इक उमर से ग़ालिब
हसरत में रहे एक बुत-ए-अरबदा-जू की
गो जिंदगी-ए-जाहिद-ए-बे-चारा अबस है
इतना है कि रहती तो है तदबीर वुजू की
                           --  मिर्जा ग़ालिब