Monday, January 26, 2015

गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) : शेरो-शायरी देशभक्तिपूर्ण गजल


महान क्रान्तिकारी रामप्रसाद 'बिस्मिल' द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध देशभक्तिपूर्ण गजल -

सरफरोशी की तमन्ना
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है?
वक्त आने दे बता, देंगे तुझे ए आस्माँ!
हम अभी से क्या बतायें, क्या हमारे दिल में है?
एक से करता नहीं क्यों, दूसरा कुछ बातचीत;
देखता हूँ मैं जिसे वो, चुप तेरी महफ़िल में है।
रहबरे-राहे-मुहब्बत, रह न जाना राह में;
लज्जते-सहरा-नवर्दी, दूरि-ए-मंजिल में है।
अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़;
एक मिट जाने की हसरत, अब दिले-'बिस्मिल' में है।
ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार;
अब तेरी हिम्मत का चर्चा, गैर की महफ़िल में है।
खींच कर लायी है सबको, कत्ल होने की उम्मीद;
आशिकों का आज जमघट, कूच-ए-कातिल में है।
है लिये हथियार दुश्मन, ताक में बैठा उधर;
और हम तैय्यार हैं; सीना लिये अपना इधर।
खून से खेलेंगे होली; गर वतन मुश्किल में है;
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
हाथ जिन में हो जुनूँ, कटते नही तलवार से;
सर जो उठ जाते हैं वो, झुकते नहीं ललकार से।
और भड़केगा जो शोला, सा हमारे दिल में है;
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
हम तो निकले ही थे घर से, बाँधकर सर पे कफ़न;
जाँ हथेली पर लिये लो, बढ चले हैं ये कदम।
जिन्दगी तो अपनी महमाँ, मौत की महफ़िल में है;
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
यूँ खड़ा मकतल में, कातिल कह रहा है बार-बार;
क्या तमन्ना-ए-शहादत, भी किसी के दिल में है?
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है;
देखना है जोर कितना, बाजु-ए-कातिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब;
होश दुश्मन के उड़ा, देंगे हमें रोको न आज।
दूर रह पाये जो हमसे, दम कहाँ मंज़िल में है;
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
जिस्म वो क्या जिस्म है, जिसमें न हो खूने-जुनूँ;
क्या वो तूफाँ से लड़े, जो कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है;
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है।


No comments:

Post a Comment